रामनवमी के दिन, जिस गांव की वह बेटी बन कर रही, उन्होंने बड़ी धूमधाम से उसकी शादी की। किसी ने पिता बनकर कन्यादान किया तो किसी ने मामा बनकर रस्म अदा की। और जब विदाई का वक्त आया तो हर किसी की आंखें छलक उठीं।
13 साल पहले जब वह महज पांच बरस की थी, उसके पिता दुखुराम यादव चल बसे। मां पांच साल की चंपा के जिम्मे चमेली, मोंगरा और केवरा को छोड़कर बिना बताए चली गई। वह कभी लौट कर नहीं आई। दो-तीन बरस की तीन छोटी बहनों को चंपा कैसे संभालती, उसे भी नहीं पता था। मां के गायब होने पर सिवा आंसू के कुछ नहीं बचा था। कई दिनों तक रिश्तेदारों ने भी उसके घर नहीं झांका। तब गांववालों ने चारों बहनों को पालने का बीड़ा उठाया।
मोहनलाल चंद्रवंशी (70) ने बच्चियों की देखभाल का जिम्मा लिया। पूरा गांव उनके लिए माता-पिता बन गया। तीसरी तक चंपा ने पढ़ाई भी की। गांववालों ने काम दिया और उनकी जरूरतों को पूरा किया। जिंदगी की गाड़ी ऐसी ही चली और जब वह 18 साल की हुई तो गांव वालों ने ही उसके लिए पास के गांव सरारी में दूल्हा ढूंढ़ा। रामनवमी की तारीख तय हुई और दूल्हा गोवर्धन यादव बारात लेकर पहुंच गया। स्वागत में पूरा गांव खड़ा था।
बिलासपुर-रायपुर के बीच तिल्दा-नेवरा के इस गाँव में, बारातियों का स्वागत पूरे गांववालों ने मिलकर किया। वे स्वागत-सत्कार देखकर अभिभूत हो गए। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि इस तरह पूरा गांव उनका स्वागत करेगा। गांववाले घराती बनकर काम करते रहे। रस्म भी निभाया। शादी में मोहनलाल चंद्रवंशी ने चंपा के मामा-मामी व अन्य रिश्तेदारों को भी आमंत्रित किया था।
चंपा को गांव की महिलाओं ने खूब सजाया था। दुल्हन को देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि चंपा की कहानी क्या है? गांव के शिवमंदिर में पंडित बृजमोहन तिवारी ने शादी की रस्म अदा की। मोहनलाल चंद्रवंशी व उसकी पत्नी सुमित्रा बाई ने पालक बनकर कन्यादान किया। उनकी बेटी सरला वर्मा ने मामाचार की रस्म अदा की।
फेरे के बाद पैर पूजने की रस्म हुई। इसमें गांव के हर व्यक्ति ने अपनी क्षमता से बढ़कर उपहार दिया। ऐसा कोई भी सामान नहीं था जो चंपा को नहीं मिला। बिस्तर, पलंग, कूलर से लेकर हर तरह का उपहार मिला।
पहली बार ऐसा हुआ, जब किसी लड़की की विदाई में पूरा गांव रो रहा था। चंपा के आंसू तो थम नहीं रहे थे। उसे अपनी छोटी बहनों को छोड़कर जाते हुए काफी बेचैनी हो रही थी। तीनों बहनों को उसने मां की तरह पाला था। तीनों बहनें उसे ढाढस बंधा रहीं थी, कि उनकी चिंता न करे। उनकी चिंता करने के लिए पूरा गांव है। गांव का हर व्यक्ति उसे यही समझा रहा था। चंपा की विदाई के समय ऐसा कोई भी नहीं था जिनकी आंखों में आंसू नहीं थे।
(दैनिक भास्कर, रायपुर के सौजन्य से)
भारत की तलाश
Tuesday, April 15, 2008
एक बेटी की बिदाई में सारा गाँव रोया
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3 comments:
ये मेरा इंडिया!सच मे ऎसा ही हे लेकिन आज लोगो को कुछ हो गया हे, बहुत अच्छी खवर हे काश ! हम सब एक दुसरे का दुख इसी प्रकार बाटंए
यह ही है जो भारत को इंडिया होने से बचाए हुए है
after reading i also started crying. Mera desh aur desh ke sabhi log sachmuch mahan hai.
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