भारत की तलाश

 

Thursday, April 24, 2008

अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाला नेत्रहीन जीता, लेकिन ...

नीलेश जब कॉलेज से एमए करके बाहर निकले तो उनके भी कुछ ख्वाब थे। उनमें से एक ख्वाब था मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग परीक्षा पास करके अपने प्रदेश और देश की सेवा करना। नीलेश ने जी जान से लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी की थी। चूंकि नीलेश देख नहीं सकते थे इसलिए वो अपने नोट्स टेप रिकार्डर से रिकार्ड कर लेते थे। ये एक मेहनत भरा और थका देने वाला काम था। फिर उन कैसेट्स को नीलेश सुनते और याद करने की कोशिश करते। 1997, 1998 और 1999 में नीलेश ने लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी और शुरुआती दोनों परीक्षाएं, प्रीलिम्स और मैंन पास कर गए।

अब बारी थी इंटरव्यू टेस्ट की। लेकिन, नीलेश को कभी भी इसके लिए बुलाया नहीं गया। एग्जाम में बैठने के अनुमति दी लेकिन जब साक्षात्कार की बात आई तो ये कहकर निकाल दिया कि आप विजवली इम्पेयर्ड हैं और हमारे पास आप के लिए कोई सीट नहीं हैं। नीलेश ने सवाल उठाया कि मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग के पास अगर नेत्रहीनों के लिए कोई नौकरी नहीं है तो उन्हें परीक्षा देने के लिए क्यों बुलाया जाता है? और जब मुझ जैसे लोग परीक्षा पास कर लेते हैं तो हमें इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाकर क्यों अपमानित किया जाता है? क्या सरकार के पास ऐसी कोई पोस्ट नहीं है जिसपर एक ऐसे शख्स को बिठाया जा सके जो देख नहीं सकता?

IBN7 पर समाचार आया है कि लोक सेवा आयोग के इस दोहरे रवैये के खिलाफ नीलेश ने आवाज उठाने का मन बना लिया और आयोग को हाईकोर्ट की इंदौर बेंच में चुनौती दी। नीलेश ने दलील दी कि विकलांगता से ग्रस्त (Equal Opportunities, Protection and Rights & Full Participation) एक्ट 1995 में विकलांगों को आरक्षण यानि रिजर्वेशन देने की बात कही गई है। लेकिन मेरे जैसे नेत्रहीन कैंडिडेट के साथ भेदभाव कर नौकरी पाने के संवैधानिक अधिकार से क्यों वंचित किया गया। नीलेश की लड़ाई रंग लाई। 8 अप्रैल 2008 को हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि सरकारी नौकरियों में विकलांगों के लिए आरक्षण का खास ख्याल रखे। हाईकोर्ट का ये आदेश नीलेश के जंग का नतीजा है। हालांकि इससे नीलेश को नौकरी नहीं मिली, लेकिन उस जैसे हजारों लोगों के लिए एक रास्ता ज़रुर खुल गया।

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