भारत की तलाश

 

Tuesday, April 22, 2008

साहित्य अकादमी सम्मान बेचने को मजबूर एक स्वाभिमानी

खाने और दवाओं की जरूरत पूरी करने के लिए 'वह' अपने मेडल और अन्य सम्मान बेचने की तैयारी कर रहे हैं। इसमें उन्हें, 2007 में मिला साहित्य अकादमी सम्मान भी शामिल है। ये हैं भारी आर्थिक तंगी से जूझ रहे, वयोवृध्द हिंदी उपन्यासकार और स्वतंत्रता सेनानी अमर कांत, जो अपनी मूल हस्तलिपियां तक बेच चुके हैं।

उत्तर प्रदेश के बलिया के अमर कांत, 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग ले चुके हैं। उन्हें राज्य के महात्मा गांधी पुरस्कार और साहित्य भूषण सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। इस समय बुरे दौर से गुजर रहे अमर कांत ने प्रकाशकों पर धोखाधड़ी करने और सरकार पर संवेदनहीन होने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि वह जीवनभर अपनी लेखनी से समाज के लिए और स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान देते रहे हैं। अब सरकार की बारी उनके लिए कुछ करने की है, जिससे कि वह अपनी दवाओं और रोजाना का खर्चा पूरा कर सकें।

मजबूरी के चलते 83 साल के कांत अपनी मूल हस्तलिपियां मामूली दामों में बेच चुके हैं। अब वह अपने मेडल और सम्मान बेचने को भी मजबूर हो गए हैं। इनमें उनका साहित्य अकादमी सम्मान भी शामिल है, जो उन्हें उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से' के लिए दिया गया था। उनका कहना है कि जब वह खुद ही इतनी तंगी में हैं तो इन्हें रखने का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने सम्मानित जीवन जिया है लेकिन अब वह पाई-पाई के लिए जूझ रहे हैं।

शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की तरह ही कांत भी अपने अच्छे दिनों में बहुत बड़े परिवार की देखभाल करते थे और उनका बेटा अरविंद बिंदू उनके विचारों को कलम से कागज पर उतारता था। कांत कहते हैं कि उनके प्रकाशकों ने उन्हें रॉयल्टी नहीं दी, जबकि उनके 'सूखा पत्ता' (इसके लिए 1984 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड मिला), 'काले उजाले', 'देश के लोग' और अन्य उपन्यासों ने प्रकाशकों को अच्छी कमाई कराई।

1 comment:

Anonymous said...

अमरकांत जी को कोई दिक्कत नहीं है ....यह सब उनके छोटे बेटे बिंदु का खेल है....अगर आपको यकीन न हो तो अमरकांत जी के बड़े बेटे और बहू से बात करके देख लें....उनका फोन नंबर राजकमल के मालिक अशोक माहेश्वरी से मिल जाएगा....यह सब एक बड़े और कद्दावर पिता के टुच्चे बेटे और बहू का खेल है.....