कोई सुपर कंप्यूटर नहीं और न ही मौसम विज्ञान का सहारा। फिर भी हिमाचल प्रदेश के लाहुल-स्पीति क्षेत्र के लोग साल भर के मौसम का हाल एक महीने में ही जान लेते हैं। इसी आधार पर उनकी कृषि व अन्य कार्यो की योजना बनती है।
हिमाचल के इस दुर्गम कबाइली क्षेत्र में मौसम की गणना का आधार 13 मार्च से 13 अप्रैल के बीच का समय होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सदियों से चली आ रही यह परंपरा यहां के जीवन में रची-बसी है। यहां के लोगों को इसके लिए न किसी किताब की आवश्यकता है और न जोड़-घटाव की। यह गणना सरल और सटीक मानी जाती है। इसलिए यहां के लोगों को इस पर विश्वास है, और वे इसी आधार पर साल भर की तैयारियां भी करते हैं।
13 मार्च से आरंभ होने वाली गणना में मान्यताओं के मुताबिक 15 से 21 मार्च तक साढ़े तीन-तीन दिन बुजुर्ग पुरुष व महिलाओं के लिए साल के मौसम का भविष्य तय करते हैं। इस अवधि में मौसम बरस पड़े तो साल बुजुर्गो के लिए भारी तथा साफ रहे तो शांति से गुजरने वाला माना जाता है। 22 से 28 मार्च तक की अवधि नौजवान मर्द व औरतों के लिए तय होती है। बरसने की स्थिति में अशुभ तथा मौसम के साफ रहने को शुभ माना जाता है। 29 मार्च को खराब मौसम खेत-खलिहान में कृषि कार्यो की शुरुआत को प्रभावित करने वाला तथा उस अवधि में बरसता रहने वाला माना जाता है। 30 मार्च को खराब मौसम की सूरत में क्षेत्र में हल चलाने की अवधि में निरंतर बारिश व ठंड परेशान करेगी। 31 मार्च को साफ मौसम की सूरत में फसल उगने पर मौसम पूरी तरह अनुकूल मिलेगा।
इस मान्यता के मुताबिक अगर एक अप्रैल को बारिश होती है, तो फसल तैयार होने के बाद भी मौसम की बाधा बरकरार रहेगी। दो अप्रैल को मौसम साफ रहे, तो घाटी में घास कटाई का काम सुगमता से हो सकेगा तथा मौसम तंग नहीं करेगा। यदि तीन अप्रैल को बारिश होती है, तो सितंबर में मौसम का मिजाज भारी रहेगा। चार अप्रैल को बारिश जल्द बर्फबारी व लंबी सर्दियों का संकेत देता है, जिससे रोहतांग दर्रा जल्द बंद हो जाएगा। पांच से 13 अप्रैल तक का दिन नौ ग्रहों के साल भर का मिजाज तय करता है।
मौसम की इस अनूठी गणना के पीछे भले ही कोई वैज्ञानिक आधार न हो, मगर सदियों से की जा रही इस गणना के बूते ही कबाइली मौसम का हाल जानते रहे हैं। वस्तुत:, यह मौसम पूर्वानुमान की देसी परंपरा का हिस्सा है। यह न केवल हिमाचल की वादियों में प्रचलित है, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी सदियों से जारी है। तभी तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में अब भी कहीं न कहीं लोककवि घाघ की यह लोकोक्ति सुनने को मिल सकती है -
माघ क उखम जेठ के जाड़
पहिलै बरखा भरिगा ताल।
कहै घाघ हम होब वियोगी
कुवां खोदि के धोइहैं धोबी।।
साभार: जागरण
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