घरों में बरतन धोने और झाड़ू पोंछा करने वाली एक महिला दयामणि बरला, झारखंड में खरबपति लक्ष्मी मित्तल की कंपनी आर्सेलर मित्तल के ख़िलाफ़ चल रहे आदिवासियों के आंदोलन का नेतृत्व कर रही है। इस आंदोलन में उनकी भागीदारी और नेतृत्वकारी भूमिका को देखते हुए हाल ही में उन्हें स्वीडन में यूरोपीय सामाजिक मंच की एक कार्यशाला में आमंत्रित किया गया। इस कार्यशाला में दुनिया भर में आदिवासी समाज के अधिकारों पर बातचीत की जाएगी। इस सम्मेलन में दुनिया के अलग अलग कोनों से आ रहे तेईस वक्ताओं में दयामणि बरला शामिल हैं जो मूल निवासियों के संघर्षों के बारे में जानकारी देंगे।
बीबीसी में दयामणि बरला ने अपने संघर्षों के दौरान मेहनत मज़दूरी करते हुए कई बार रेलवे स्टेशनों पर सो कर रातें काटी हैं। मेहनत की कमाई से पैसे बचा बचाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी की। इन्हीं हालात में उन्होंने एमए की परीक्षा पास की और फिर पत्रकारिता शुरू की। दयामणि झारखंड की पहली महिला पत्रकार हैं और उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। लेकिन आज भी वो राँची शहर में एक चाय की दुकान चलाती हैं और ये दुकान ही उनकी आय का प्रमुख साधन है। दयामणि कहती हैं कि “जनता की आवाज़ सुनने के लिए इससे बेहतर कोई जगह नहीं है.”
स्वीडन में हुए सम्मेलन में उन्होंने उन चालीस गाँव के लोगों की दास्तान सुनाई जिनकी ज़मीन इस्पात कारख़ाना लगाने के लिए आर्सेलर मित्तल कंपनी को दी जा रही है। लक्ष्मी मित्तल इस इलाक़े में क़रीब नौ अरब डॉलर की लागत से दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारख़ाना लगाना चाहते हैं। इसका नाम ग्रीनफ़ील्ड इस्पात परियोजना है और इसके लिए बारह हज़ार एकड़ ज़मीन चाहिए। ये ज़मीन आदिवासियों से ली जानी है।
लेकिन दयामणि बरला के संगठन आदिवासी, मूलवासी अस्तित्त्व रक्षा मंच का कहना है कि इस परियोजना से भारी संख्या में लोग बेघर हो जाएँगे। आंदोलन चला रहे लोगों का ये भी कहना है कि इस परियोजना से पानी और दूसरे प्राकृ़तिक संसाधन बरबाद हो जाएँगे जिसका सीधा असर आदिवासियों पर पड़ेगा जो परंपरागत रूप से प्रकृति पर आश्रित रहते हैं। दयामणि बरला का कहना है कि “आदिवासी अपनी ज़मीन का एक इंच भी नहीं देंगे।”
उन्होंने कहा, “हम अपनी ज़िंदगी क़ुरबान कर देंगे लेकिन अपने पुरखों की ज़मीन का एक इंच भी नहीं देंगे। मित्तल को हम अपनी धरती पर क़ब्ज़ा नहीं करने देंगे।”
धरतीमित्र नाम के संगठन से जुड़े विले वेइको हिरवेला ने कहा कि आदिवासियों के लिए ज़मीन ख़रीदने बेचने वाला माल नहीं होता। वो ख़ुद को ज़मीन का मालिक नहीं बल्कि संरक्षक मानते हैं. ये ज़मीन आने वाली पीढ़ी के लिए हिफ़ाज़त से रखी जाती है। दयामणि बरला का कहना है, “औद्योगिक घराने आदिवासी समाज के आर्थिक व्यवहार से अनजान हैं. वो नहीं जानते ही आदिवासी खेती और जंगल की उपज पर निर्भर रहते हैं।” उन्होंने कहा अगर आदिवासियों को उनके प्राकृतिक स्रोतों से अलग कर दिया जाएगा तो वो जीवित नहीं बच पाएँगे।
दयामणि बरला के बारे में कुछ जानकारी 4MB की pdf में यहाँ पायी जा सकती है।
(समाचारांश, बीबीसी से साभार)
भारत की तलाश
Wednesday, October 22, 2008
बरतन धोने-झाड़ू पोंछा करने वाली महिला, ताक़तवर बहुराष्ट्रीय कंपनी के ख़िलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व कर रही
Labels:
आदिवासी,
इस्पात कारख़ाना,
क़ब्ज़ा,
धरती,
महिला पत्रकार,
स्वीडन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा
naman aesi mahila ko
aagya dae to aapke blog link kae saath is charitr ko naari blog par bhi dae dae
thanks
रचना जी,
ऐसे मामलों में मेरी मुस्कुराहट भरी प्रतिक्रिया यही रहती है कि "सबै भूमि गोपाल की"
आपने पूछा, धन्यवाद।
आप इच्छानुसार नारी ब्लॉग पर, इस पोस्ट का उपयोग कर सकतीं हैं।
दयामणि को शत-शत प्रणाम। बहुत अच्छी पोस्ट।
महिलाएँ चाहें तो दुनिया बदल सकती हैं।
Post a Comment