भारत की तलाश

 

Sunday, October 19, 2008

एक बहादुर माँ को सलाम, जो वक्त का सामना नहीं कर सकी

व्यक्तिगत रूप में जब मैंने यह ख़बर पढ़ी तो मन भर आया या कहूं तो आंसू निकल पड़े। हुया यह कि पिछले तीन महीने से आईसीआईसीआई बैंक से एक भी लोन नहीं दिलवा पाने के कारण दो दिन तक भूखी रहने के बाद नीलम तिवारी उर्फ बीनू (35) ने फांसी लगाकर जान दी। अब इस परिवार में न तो कोई पुरुष है और न ही कोई कमाने वाला। दुनिया भर में जारी आर्थिक मंदी की राजधानी में पहली शिकार बनी मां की मौत के बाद 13 साल की बेटी नेहा अब गुमसुम है। 10 साल पहले आगरा में हुए ट्रेन हादसे में पिता को खोने के बाद अब उसकी मां नीलम भी नहीं रही। मौके से पुलिस को तीन स्यूसाइड नोट मिले थे।

बेटी नेहा को लिखे नोट में नीलम ने लिखा 'मैंने अब तक बहुत संघर्ष किया है। अब हिम्मत हार रही हूं। बेटा, आगे का सफर तुम्हें खुद तय करना होगा'।

मां को लिखे नोट में उसने माफी मांगते हुए लिखा कि 'दूर-दूर तक कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। आपकी स्थिति भी ऐसी नहीं है कि कोई मदद कर सकें। मेरे पास न तो किराया देने के पैसे हैं और न खाने के। मेरे घर का सामान बेचकर मेरी बेटी की पढ़ाई का कम से कम यह साल जरूर पूरा करा देना'।

पुलिस को लिखे नोट में नीलम ने अपनी मौत का जिम्मेदार आर्थिक तंगी को बताया।

नवभारत टाइम्स में पंकज त्यागी द्वारा समाचार है कि द्वारका इलाके के सेवक पार्क में रहने वाली माया शर्मा के घर की स्थिति देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान का दिल पिघल सकता है। घर में माया, उनकी अविवाहित बेटी और नेहा ही हैं। घर में कोई कमाने वाला इंसान नहीं है। नेहा विकासपुरी के कोलंबिया स्कूल में 9 वीं क्लास की छात्रा है। माया ने बताया कि नेहा पढ़ाई में बहुत होशियार है। आठवीं क्लास में उसके 95 फीसदी नंबर आए थे। अब वह इस स्थिति में नहीं हैं कि उसकी पढ़ाई जारी रखवा सकें। उन्हें उम्मीद है कि कोई गैर सरकारी संगठन नेहा की मदद करने आगे आएगा। नेहा ने बताया कि दो-तीन दिन से मां बहुत परेशान थी। उसने अपनी मां को फांसी पर लटके हुए देखा था। माया ने बताया कि नेहा के दिल पर उस मंजर का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया है।

नेहा की नानी, माया ने बताया कि नीलम इन दिनों खुद तंगी में होते हुए भी अपनी एकमात्र संतान नेहा की पढ़ाई जारी रखने की कोशिश में लगी हुई थी। मंदी में बैंकों से लोन दिलवा पाने में वह कामयाब नहीं हो पा रही थी। इस वजह से उसका कमीशन भी बंद हो गया था। माया शर्मा के मुताबिक लोन के कमीशन के अलावा नीलम की कोई कमाई नहीं थी। कुछ दिन तक तो वह अपनी माँ माया से रुपये लेती रही। लेकिन माँ की आर्थिक हालत खुद ही ठीक नहीं थी। उन्होंने बताया कि तीन महीने से नीलम बहुत परेशान थी। उसकी हालत पागलों जैसी हो गई थी। घर की हालत ऐसी थी कि कई बार तो नेहा को भी भूखा सोना पड़ता था।

कानपुर की रहने वाली नीलम की शादी 1994 में आगरा के रहने वाले दिलीप तिवारी से हुई थी। 1998 में आगरा में हुए ट्रेन हादसे में दिलीप की मौत हो गई। नीलम ने दूसरी शादी नहीं की और एक साल की बेटी को साथ लेकर मां और बहन के साथ दिल्ली आ गई। माया ने बताया कि उन्होंने नीलम से कई बार शादी करने के लिए कहा था, लेकिन वह तैयार नहीं होती थी। एक साल से उसने आईसीआईसीआई बैंक से लोन दिलवाने का काम शुरू किया था। लेकिन आर्थिक मंदी ने रोजी-रोटी का यह आसरा भी खत्म कर दिया।

ब्लॉग की दुनिया में हूँ, इसलिए ख़बर पढ़ते वक्त जिज्ञासा हुयी कि नारियों के ब्लॉग पता नहीं क्या प्रतिक्रिया दे रहे होंगे! लेकिन पाया कि उनकी आँख की किरकिरी तो मन्दिर और पब बने हुए हैं और एक महिला के संत होने को नमन कर रहें हैं या फिर नारियों के पहुँचने की छमाई ट्रैफिक रिपोर्ट दे रहे हैं और स्त्री के वस्त्रों के अनुपात से उसके चरित्र की पैमाईश पर बहस कर रहे। एक आशा भरी उम्मीद लेकर गया था, पर निराशा हाथ लगी।

भरे मन से सोच रहा था कि कितनी टूट चुकी होगी ये बच्ची? कैसे उसकी मदद के लिए हम आगे आएं। तभी एक अपडेट मिला कि अगर आप इस बच्ची नेहा की मदद करना चाहते हैं तो उनकी नानी से इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं: 09811544027

5 comments:

Suresh Kumar Sharma said...

दुनिया की क्रांतियों का इतिहास कहता है कि परिवर्तन के लिए दो चीजों की आवश्यकता है । एक अकाट्य तर्क और दूसरा उस तर्क के पीछे खड़ी भीड़ । अकेले अकाट्य तर्क किसी काम का नही और अकेले भीड़ भी कुम्भ के मेले की शोभा हो सकती है परिवर्तन की सहयोगी नही ।
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इस युग के कुछ अकाट्य तर्क इस प्रकार है -
* मशीनों ने मानवीय श्रम का स्थान ले लिया है ।
* कम्प्यूटर ने मनवीय मस्तिष्क का काम सम्भाल लिया है ।
* जीवन यापन के लिए रोजगार अनिवार्य होने की जिद अमानवीय है ।
* 100% रोजगार सम्भव नही है ।
* अकेले भारत की 46 करोड़ जनसंख्या रोजगार के लिए तरस रही है ।
* संगठित क्षेत्र में भारत में रोजगार की संख्या मात्र 2 करोड़ है ।
* दुनिया के 85% से अधिक संसाधनों पर मात्र 15 % से कम जनसंख्या का अधिपत्य है ।
* 85 % आबादी मात्र 15 % संसाधनों के सहारे गुजर बसर कर रही है ।
धरती के प्रत्येक संसाधन पर पैसे की छाप लग चुकी है, प्राचीन काल में आदमी जंगल में किसी तरह जी सकता था पर अब फॉरेस्ट ऑफिसर बैठे हैं ।
* रोजगार की मांग करना राष्ट्र द्रोह है, जो मांगते हैं अथवा देने का वादा करते हैं उन्हें अफवाह फैलाने के आरोप में सजा दी जानी चाहिए ।
* रोजगार देने का अर्थ है मशीनें और कम्प्यूटर हटा कर मानवीय क्षमता से काम लेना, गुणवता और मात्रा के मोर्चे पर हम घरेलू बाजार में ही पिछड़ जाएंगे ।
* पैसा आज गुलामी का हथियार बन गया है । वेतन भोगी को उतना ही मिलता है जिससे वह अगले दिन फिर से काम पर लोट आए ।
* पुराने समय में गुलामों को बेड़ियाँ बान्ध कर अथवा बाड़ों में कैद रखा जाता था ।
अब गुलामों को आजाद कर दिया गया है संसाधनों को पैसे की दीवार के पीछे छिपा दिया गया है ।
* सरकारों और उद्योगपतियों की चिंता केवल अपने गुलामों के वेतन भत्तों तक सीमित है ।
* जो वेतन भत्तों के दायरों में नही है उनको सरकारें नारे सुनाती है, उद्योग पति जिम्मेदारी से पल्ला झाड़े बैठा है ।
* जो श्रम करके उत्पादन कर रही हैं उनकी खुराक तेल और बिजली है ।
* रोटी और कपड़ा जिनकी आवश्यकता है वे उत्पादन में भागीदारी नही कर सकते, जब पैदा ही नही किया तो भोगने का अधिकार कैसे ?
ऐसा कोई जाँच आयोग बैठाने का साहस कर नही सकता कि मशीनों के मालिकों की और मशीनों और कम्प्यूटर के संचालकों की गिनती हो जाये और शेषा जनसंख्या को ठंडा कर दिया जाये ।
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दैनिक भास्कर अखबार के तीन राज्यों का सर्वे कहता है कि रोजगार अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा है , इस दायरे में 40 वर्ष तक की आयु लोग मांग कर रहे हैं।
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देश की संसद में 137 से अधिक सांसदों के द्वारा प्रति हस्ताक्षरित एक याचिका विचाराधीन है जिसके अंतर्गत मांग की गई है कि
* भारत सरकार अब अपने मंत्रालयों के जरिये प्रति व्यक्ति प्रति माह जितनी राशि खर्च करने का दावा करती है वह राशि खर्च करने के बजाय मतदाताओं के खाते में सीधे ए टी एम कार्डों के जरिये जमा करा दे।
* यह राशि यू एन डी पी के अनुसार 10000 रूपये प्रति वोटर प्रति माह बनती है ।
* अगर इस आँकड़े को एक तिहाई भी कर दिया जाये तो 3500 रूपया प्रतिमाह प्रति वोटर बनता है ।
* इस का आधा भी सरकार टैक्स काट कर वोटरों में बाँटती है तो यह राशि 1750 रूपये प्रति माह प्रति वोटर बनती है ।
* इलेक्ट्रोनिक युग में यह कार्य अत्यंत आसान है ।
* श्री राजीव गान्धी ने अपने कार्यकाल में एक बार कहा था कि केन्द्र सरकार जब आपके लिए एक रूपया भेजती है तो आपकी जेब तक मात्र 15 पैसा पहूँचता है ।
* अभी हाल ही में राहुल गान्धी ने इस तथ्य पर पुष्टीकरण करते हुए कहा कि तब और अब के हालात में बहुत अंतर आया है आप तक यह राशि मात्र 3 से 5 पैसे आ रही है ।
राजनैतिक आजादी के कारण आज प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति बनने की समान हैसियत रखता है ।
जो व्यक्ति अपना वोट तो खुद को देता ही हो लाखों अन्य लोगों का वोट भी हासिल कर लेता है वह चुन लिया जाता है ।
* राजनैतिक समानता का केवल ऐसे वर्ग को लाभ हुआ है जिनकी राजनीति में रूचि हो ।
* जिन लोगों की राजनीति में कोई रूचि नही उन लोगों के लिए राज तंत्र और लोक तंत्र में कोई खास अंतर नही है ।
* काम के बदले अनाज देने की प्रथा उस जमाने में भी थी आज भी है ।
* अनाज देने का आश्वासन दे कर बेगार कराना उस समय भी प्रचलित था आज भी कूपन डकार जाना आम बात है ।
* उस समय भी गरीब और कमजोर की राज में कोई सुनवाई नही होती थी आज भी नही होती ।
* जो बदलाव की हवा दिखाई दे रही है थोड़ी बहुत उसका श्रेय राजनीति को नही समाज की अन्य व्यवस्थाओं को दिया जाना युक्ति संगत है ।
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राष्ट्रीय आय में वोटरों की नकद भागीदारी अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए ।
* अब तक इस विचार का विस्तार लगभग 10 लाख लोगों तक हो चुका है ।
* ये अकाट्य मांग अब अपने पीछे समर्थकों की भीड़ आन्धी की तरह इक्क्ट्ठा कर रही है ।
* संसद में अब राजनीतिज्ञों का नया ध्रूविकरण हो चुका है ।
* अधिकांश साधारण सांसद अब इस विचार के साथ हैं । चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हो ।
* समस्त पार्टियों के पदाधिकारिगण इस मुद्दे पर मौन हैं ।
* मीडिया इस मुद्दे पर कितनी भी आँख मूँद ले, इस बार न सही अगले चुनाव का एक मात्र आधार 'राष्ट्रीय आय मं. वोटरों की नकद भागीदारी' होगा, और कुछ नही ।
* जो मिडिया खड्डे में पड़े प्रिंस को रातों रात अमिताभ के बराबर पब्लिसिटी दे सकता है उस मीडिया का इस मुद्दे पर आँख बन्द रखना अक्षम्य है भविष्य इसे कभी माफ नही करेगा|
knol में जिन संवेदनशील लोगों की इस विषय में रूचि हो वे इस विषय पर विस्तृत जान कारी के लिए fefm.org के डाउनलोड लिंक से और इसी के होम पेज से सम्पर्क कर सकते हैं ।
मैं नही जानता कि इस कम्युनिटी के मालिक और मोडरेटर इस विचार से कितना सहमत या असहमत हैं परंतु वे लोग इस पोस्टिंग को यहाँ बना रहने देते हों तो मेरे लिए व लाखों उन लोगों के लिए उपकार करेंगे जो इस आन्दोलन में दिन रात लगे हैं ।
सांसदों का पार्टीवार एवं क्षेत्र वार विवरण जिनने इस याचिका को हस्ताक्षरित किया, वेबसाइट पर उपलब्ध है ।

परमजीत सिहँ बाली said...

आलेख तो अच्छा है ही लेकिन सुरेश जी की टिप्पणी ने अच्छा विश्लेष्ण किया है।दोनों का आभार।

Vivek Gupta said...

मैंने ये न्यूज़ तो पड़ी थी लेकिन यह मुझे अभी तक समझ में नहीं आया की हर शहर में हजारों
की संख्या में छोटे मोटे काम उपलब्ध है वह उस महिला ने क्यों नहीं किए | शायद उस महिला की कोई मज़बूरी रही होगी |

संगीता पुरी said...

आपने बहादुर मां को सलाम किया है , पर मेरा मानना है कि उसे थोड़े दिन और संघर्ष कर अपनी बिटिया को अपने पैरों पर खड़ा कर देना चाहिए था। कहीं न कहीं कोई उपाय तो निकल ही जाता। सुरेशजी के संकलन ने बहुत जानकारी दी। हालांकि विवेक गुप्ताजी ने जैसा कहा , वैसा कुछ खास विकल्प नहीं होता , महिलाओं के पास काम करने के लिए। बड़े शहरों में एक कमरे का किराया ही 2000 रूपए के आसपास होता है और काम करने पर 3000 के आसपास मिलते हैं। अब ऐसी हालत में वे किराया दें , खाएं या फिर बच्चे को पढाएं।

राज भाटिय़ा said...

आपने बहादुर मां को सलाम किया है , लेकिन मै उसे बहादुर मां नही समझता, एक बच्ची को इस दुनिया के सहारे छोड कर हिम्मत हार कर चली गई, ओर जो हिम्मत हारे वो कभी बहादुर नही होता, इतने काम है, इस दुनिया मै, जिस से इज्जत से पेसा कमा सके , मेहानत मज्दुरी, घरो मे काम यह काम गलत नही, मजबुरी मै सब करना पडता है, सिर्फ़ लोन ही एक रास्ता नही,मेने देखा है, कई हिम्मत वालो को जो वक्त से लडे ओर का हुये.
धन्यवाद