भारत की तलाश

 

Tuesday, March 9, 2010

क्या इस युवती के लिए शाबासी और तालियाँ ही बहुत हैं?

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है? शायद यह पंक्तियां कल्पना सरोज जैसी महिला के लिए ही लिखी गई हैं, जो उस बीमार कंपनी को नया जीवन देने का प्रयास कर रही हैं जिसे हाथ लगाने से बड़े-बड़े उद्योगपति भी डर रहे थे।


महाराष्ट्र के अकोला जिले में एक दलित परिवार में जन्मी कल्पना सरोज के पिता पुलिस विभाग में हवलदार थे। पांच भाई-बहनों सहित सात सदस्यों के परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुट पाना भी मुश्किल था। शिक्षा बीच में ही छुड़वाकर परिवार की परंपराओं के मुताबिक 12 वर्ष की उम्र में ही विवाह हो गया। ससुराल मुंबई में थी। झोपड़पट्टी में छोटा सा घर और संयुक्त परिवार। गांव के खुले माहौल से आई बच्ची को यह रहन-सहन बिल्कुल रास नहीं आया और साल भर के अंदर ही विवाह टूट गया।

पिता के घर वापस जाने पर फिर से पढ़ाई शुरू हुई। साथ ही जीवनयापन की योजना के तहत सिलाई का काम भी सीखना शुरू कर दिया। लेकिन ससुराल छोड़कर आई किशोरी को कैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा होगा, इसका अनुमान उस त्रासद घटना से ही लगाया जा सकता है, जिसके तहत कल्पना ने एक दिन जहर की तीन शीशियां एक साथ गले के नीचे उतार ली। अस्पताल ले जाया गया। जान बच गई। लेकिन देखने आनेवाले हर शख्स की जुबान पर एक ही बात थी कि अगर मर जाती तो लोग यही कहते कि महादेव की बेटी ने कुछ गलत किया होगा, तभी जान दे दी।

दक्षिण मुंबई के बेलार्ड पियर्स स्थित कमानी चैंबर्स के अपने कार्यालय में बैठी कल्पना सरोज के कानों में लोगों के ये ताने आज भी गूंजते रहते हैं। वह कहती हैं कि किसी ने भी उस समय यह पूछने की कोशिश नहीं की कि किन तकलीफों से तंग आकर मैंने आत्महत्या की कोशिश कर डाली। कल्पना ने तभी तय कर लिया कि अब जीना है तो अपनी शर्तो पर, वह भी कुछ करके दिखाने के लिए।

लोगों से सुना था कि मुंबई में नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए पिता से मुंबई भेजने की जिद की। ससुराल तो छूट ही चुकी थी, इसलिए पिता ने मुंबई में रह रहे एक चाचा के पास रहने की व्यवस्था करवा दी। सिलाई सीख रखी थी, इसलिए दो रुपये रोज की मजदूरी पर एक होजरी के कारखाने में हेल्पर की नौकरी मिल गई । कुछ अच्छे लोगों की संगत में थोड़ी-बहुत पढ़ाई-लिखाई भी हुई, लेकिन दसवीं पास करने का मौका फिर भी नहीं मिला।

संयोग से दुबारा विवाह हुआ मुंबई के निकट कल्याण शहर में। पति स्टील की सस्ती अलमारियां एवं अन्य वस्तुएं बनाने का व्यवसाय करते थे। उनसे दो बच्चे हुए और पति के निधन से यह साथ भी छूट गया। कम पढ़ी लिखी बेसहारा औरत एवं दो छोटे बच्चे। रोजगार का कोई अनुभव नहीं। इसके बावजूद पति का व्यवसाय ही आगे बढ़ाकर जीविका चलाने की ठान ली। काम चल निकला। पति के समय से भी ज्यादा बचत भी होने लगी । कुछ पैसे जुटाकर एक ऐसी जमीन का टुकड़ा खरीद लिया, जिस पर तमाम अवैध कब्जे थे। किसी तरह कब्जे हटवाकर बैंक से ऋण लेकर एक रिहायशी इमारत बनाकर भवन निर्माण के व्यवसाय में कदम रख दिया। लाभ हुआ तो एक और इमारत बनाई । साथ ही क्षेत्र के बेरोजगार युवकों को विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाकर रोजगार शुरू करने में भी मदद की।

धीरे-धीरे छवि ऐसी बनती गई कि जब आजादी के दौर के एक प्रसिद्ध व्यावसायिक घराने की कंपनी कमानी टयूब्स लिमिटेड डूबने लगी और बीआईएफआर (बोर्ड फारइंडस्ट्रियल एवं फाइनेंशियल रिकंसट्रक्शन) ने इसे संभालने के लिए किसी को आगे आने का प्रस्ताव रखा तो कल्पना के पड़ोस में रहने वालेकंपनी के कुछ कर्मचारी उनके पास इस उम्मीद से जा पहुंचे कि वही इस कंपनी को संभाल सकती हैं।

बंद पड़ चुकी कमानी टयूब्स लिमिटेड। उस पर 116 करोड़ रुपयों का कर्ज120 से ज्यादा मुकदमे। 500 से ज्यादा कर्मचारियों के बकाया देय। और दो यूनियनें। इनमें से एक कर्मचारी संगठन एक बार बीआईएफआर से कंपनी की कमान संभालकर असफल भी हो चुका था। दूसरी ओर कल्पना को कंपनी चलाने का कोई अनुभव नहीं। इसके बावजूद हिम्मत बांध ली। क्योंकि सवाल खुद के लिए पैसा कमाने का नहीं, बल्कि कंपनी बंद होने से बदहाल हो रहे कर्मचारियों के भविष्य का था

10 लोगों का एक समूह बनाकर कंपनी चलाने की रूपरेखा तैयार की और बीआईएफआर के सामने हाजिर हो गई । बीआईएफआर ने वर्ष 2000 में उनके कंपनी चलाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उन्हें छह साल लगे कंपनी के वित्तीय पचड़ों को सुलझाने में। ऋणदाता बैंकों से कई दौर की बातचीत करके ऋण की राशि 116 करोड़ से घटाकर 40 करोड़ तक लाने में कामयाब रहीं। कंपनी छोड़कर जानेवाले 566 कर्मचारियों को कुल 8.5 करोड़ रुपयों की एकमुश्त अदायगी की।

21 मई, 2006 को कमानी टयूब्स लिमिटेड की चेयरपर्सन का दायित्व संभालनेवाली कल्पना सरोज अब बेलार्ड पियर्स स्थित अपने जिस कार्यालय में बैठती हैं, वह अनिल अंबानी के स्वामित्ववाले रिलायंस सेंटर से चंद कदमों की दूरी पर वाडिया हाउस के ठीक सामने स्थित है। इस मार्ग का नाम ही कमानी रोड है।

कल्पना के विश्वस्त सहयोगी एवं कंपनी के प्रबंध निदेशक एमके गोरे बताते हैं कि नए प्रबंधन में आने के बाद अपने पहले उत्पादन वर्ष में ही कंपनी ने 375 से 500 करोड़ रुपयों के बीच व्यवसाय का लक्ष्य निर्धारित किया है। यदि कल्पना सरोज की यह कल्पना सफल हो सकी तो यह न सिर्फ उनके जीवन की, बल्कि बीआईएफआर के अब तक के इतिहास की भी अजूबी घटना साबित होगी।

(मूलत: जागरण में प्रकाशित ओमप्रकाश तिवारी की एक रिपोर्ट के अंश, आभार सहित)

3 comments:

indian citizen said...

यह ही भारत रत्न की हकदार है.

Yashwant Mehta "Yash" said...

Kalpana ji ko hamari taraf se salam.
Lady of Steel

Mithilesh dubey said...

सलाम करता हूँ ।