भारत की तलाश

 

Monday, November 10, 2008

भिखारियों के इस कार्य पर GRP ने भी मुहर लगा दी है

गाजियाबाद स्टेशन से 450 से अधिक ट्रेनों के जरिए रोजाना एक लाख से अधिक यात्री सफर करते हैं। कुछ बदनसीब ट्रेन हादसे का शिकार हो जाते हैं। ऐसे क्षत-विक्षिप्त शवों से हर कोई अपना मुंह मोड़ लेता है। ऐसे में स्टेशन पर मौजूद भिखारी ही इन लावारिस शवों के अपने हो जाते हैं। कटी हुई लाश सामने आते ही सरकारी रेलवे पुलिस (GRP) को काले और भरतू की याद आ जाती है। दैनिक हिन्दुस्तान में संजीव वर्मा लिखते हैं कि काले के पिता ने करीब पचास साल पहले पटरी पर कटी लाशों को उठाने का काम शुरू किया था और अब वह इस काम को अंजाम देते हैं। लाशों को उठाकर उनका अंतिम संस्कार करना इनका पेशा बन चुका है। इस काम के लिए पैसा शनिवार को स्टेशन पर शनिदेव की तस्वीर लगाकर कमाया जाता है। परिवार के सभी लोग स्टेशन पर भीख मांगते हैं। उसी से पूरे परिवार का भरण-पोषण होता है।

इस काम में शामिल भरतू का परिवार भी इनके साथ ही मिलकर काम करता है। रेलवे लाइन के किनारे एक झुग्गी में उनका परिवार लंबे समय से रह रहा है। वह कहता है कि शनिवार को तीन सौ से चार सौ रुपये की कमाई हो जाती है। इस पैसे से लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। स्टेशन पर इस तरह का काम करने वाले भिखारियों ने इसे सामाजिक सेवा से जोड़ते हुए दूसरी तस्वीर पेश की है। भिखारियों के इस कार्य पर GRP ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है।

दैनिक हिन्दुस्तान में संजीव वर्मा आगे लिखते हैं कि यह काम भिखारियों के कुछ परिवारों तक सीमित है। यह लोग अपने कार्य के प्रति इतने सजग हैं कि सूचना मिलते ही पहुंच जाते हैं। GRP के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2005 में 87, वर्ष 2006 में 98, 2007 में 107 व वर्ष 2008 में अब तक 80 शवों का अंतिम संस्कार हो चुका है। शव उठाने के बदले स्टेशन पर भीख मांग कर करीब दो दर्जन लोगों का पेट पल रहा है।

3 comments:

ghughutibasuti said...

इनके इस काम की सराहना तो की जा सकती है , परन्तु एक पहलू और भी है । क्या ये लाशें वास्तव में लावारिस होती हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन लाशों के फोटो व जेब से मिले कागज, बटुए आदि से उनकी पहचान होनी चाहिए व आज के नेट के युग में जिसकी जानकारी हर थाने में होनी चाहिए वह न करके इन्हें लावारिस घोषित करके भिखारियों द्वारा उनका क्रिया कर्म करवाया जा रहा है ? हो सकता है कि इनमें से कुछ के परिवार वाले इन्हें ढूँढते हुए जीवन गुजार रहे हों ।
घुघूती बासूती

mehek said...

karya to achha hai magar ghughuti ji se kahi sehmat bhi hun

राज भाटिय़ा said...

भाई यह घुघूती बासूती की टिपण्णी भी बहुत कुछ कह रही है.
धन्यवाद