भारत की तलाश

 

Saturday, August 22, 2009

महिला फौजी अधिकारियों को पेंशन नहीं, मेडिकल सुविधा नहीं; फौज़ में शामिल होने का मलाल इन्हें

तीनों सेनाओं की सर्वोच्च सेनापति भले ही एक महिला हों, लेकिन उनके मातहत काम कर रही भारतीय रक्षा सेनाओं में महिलाएं समान हक के लिए अब भी छटपटा रही हैं। रक्षा मंत्रालय की नाकाम नीतियों के कारण अल्प सेवा कमीशन की महिला अधिकारी सेवा छोड़ने को मजबूर हैं। दैनिक जागरण में प्रणव उपाध्याय की एक दिलचस्प रिपोर्ट है कि अपने ही संगठन की बेरुखी के चलते तीनों सेनाओं की करीब ढाई हजार महिला अधिकारियों को अब इंतजार है दिल्ली हाईकोर्ट में होने वाली सुनवाई का। जहां सरकार को यह बताना है कि तीन सेवा विस्तार और 14 साल की सेवा के बावजूद इन अधिकारियों को सेना क्यों न तो स्थायी कमीशन दे रही है और न ही सेवानिवृत्ति के लाभ। सुनवाई पर भी यदि सालीसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम सरकार की नीति साफ करने में नाकाम रहे तो शायद नौ और महिला अधिकारी 25 अगस्त को सेना से खाली हाथ रुखसत हो जाएंगी।


महिलाओं को स्थायी कमीशन न देने को लेकर सरकार के तर्क भी कम रोचक नहीं हैं। न्यायालय में बीते तीन साल से चल रही सुनवाई में सरकार ने कभी अमेरिकी सेना के माडल का हवाला दिया तो कभी इन अधिकारियों के कम प्रशिक्षण का। महिलाओं को स्थायी कमीशन न दे पाने के लिए सरकार ने यहां तक कहा कि इनके युद्धबंदी बनने पर काफी फजीहत हो सकती है। हालांकि कोर्ट का रुख देखते हुए अगली सुनवाई में सरकार ने अपनी नीति स्पष्ट करने का भरोसा जरूर दिलाया है।

नब्बे के शुरुआती दशक में महिलाओं के लिए अल्प सेवा कमीशन के रास्ते खोले गए। आरंभिक पांच साल की सेवाओं के बाद इन अधिकारियों को पहले पांच साल और बाद में चार साल का सेवा विस्तार दिया गया। लेकिन अब, प्रयोग के तौर पर अधिकारी बनाई गई इन महिला अफसरों को रक्षा मंत्रालय 14 साल की सेवा के बाद चलता कर रहा है। विदाई भी ऐसी कि फौज को अपने उम्र के बेहतरीन साल देने के बाद इन महिला अफसरों के हाथ न तो पेंशन है, न मेडिकल सुविधाएं और न ही पूर्व सैनिक का दर्जा। है तो बस एक रिलीज आर्डर। हालत यह है कि मार्च 2008 में सेना से बाहर हुई मेजर अंकिता श्रीवास्तव अब बायो-डाटा लिए नौकरी की तलाश में भटकने को मजबूर हैं। डेढ़ साल से बेरोजगार मेजर श्रीवास्तव किसी पद के लिए अति शिक्षित हैं तो कहीं उम्र के पैमाने पर अनफिट। कभी मिस इलाहाबाद रही शहर की पहली महिला फौजी अधिकारी को अब सेना में शामिल होने का ही मलाल है।

दो फीसदी विधवा कोटे से सेना में शामिल हुई महिला अधिकारियों की मुसीबत दोहरी है। अपना पति खोकर सेना के सहारे पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रही इन अधिकारियों के पास तो अधेड़ उम्र की बेरोजगारी से निपटने के लिए जीवनसाथी का संबल भी नहीं है। न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वाली सेना और वायुसेना की 58 अधिकारी भारतीय रक्षा सेनाओं पर सीधे लिंगभेद का आरोप लगाती हैं। चंद दिनों पहले सेवामुक्त हुई पूर्व विंग कमांडर स्मृति शर्मा कहती हैं कि 'महिलाओं के लिए ना तो सेवा शर्तो में कोई छूट है और ना ही सेवा स्थितियों में रियायत। लेकिन, जब बारी सेवा लाभ देने की आती है तो हमें हर बार पीछे धकेला जाता है। यह सब तब जब रक्षा सेनाओं में अफसरों के 24 हजार से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। एक सेवारत महिला अधिकारी कहती हैं कि 'इस बारे में रक्षामंत्री, रक्षा राज्यमंत्री, यूपीए अध्यक्ष और राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाया जा चुका है। हर कोई मामले से सहानुभूति तो जताता है लेकिन अब तक कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है।' महिला अफसरों के मुताबिक उनके स्थायी कमीशन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रक्षा बलों के मुखियाओं का रुख है।

1 comment:

Anonymous said...

हमने जिस फौज को भारत मां की हिफ़ाज़त का जिम्मा सौंप रखा है वो किसी की मां-बहन के साथ इस तरह सलूक कैसे कर सकती है। फौज अगर महिलाओं का सम्मान नहीं कर सकती तो उसे महिलाओं को नौकरी देना बंद कर देना चाहिये।