भारत की तलाश

 

Monday, March 22, 2010

देश की सुरक्षा दांव पर लगा मोबाइल कम्पनियों ने फर्जी नाम और पतों पर पांच करोड़ मोबाइल सिम जारी कर दिए

संचार क्रांति के नाम पर पैसा बटोरने में जुटीं सरकारी और गैर सरकारी मोबाइल कम्पनियों ने देश की सुरक्षा को भी दांव पर लगा दिया है। पैसा कमाने की होड़ तथा गला काट प्रतिस्पर्धा ने सारे नियम और कानून को ताक पर रख कर मोबाइल कम्पनियों ने देशभर में फर्जी नाम और पतों पर पांच करोड़ मोबाइल सिम जारी कर दिए हैं। फर्जी सिमकार्डो के दुरुपयोग पर दूर संचार नियामक आयोग (ट्राई) तब हरकत में आया जब इन सिमकार्डो का आतंकवादी गतिविधियों में प्रयोग होने की शिकायतें जोर पकड़ने लगीं।

दूर संचार मंत्रालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक फर्जी नाम और पते से सिमकार्ड बांटने वाली कम्पनी

  • एमटीएनएल पर 147.2 लाख,
  • बीएसएनएल 1388.53 लाख,
  • एयरटेल पर 1851.04 लाख,
  • रिलायंस कम्यूनिकेशन लिमिटेड पर 1341.46 लाख,
  • रिलायंस टेलीकम्यूनिकेशन लिमिटेड पर 63.03 लाख,
  • आइडिया पर 419.64 लाख,
  • डिसनेट पर 289.4 लाख,
  • वोडाफोन पर 909.15 लाख,
  • स्पाइस पर 78.31 लाख,
  • टाटा पर 518.२७ लाख,
  • एचएफसीएल पर 7.35 लाख,
  • लूप मोबाइल इंडिया लिमिटेड पर 38.43 लाख
  • सिस्टेमा श्याम टेलीसर्विसेज लिमिटेड पर 8.61 लाख
समेत कुल 7060.42 लाख रुपए का जुर्माना ठोंका है।

दूर संचार मंत्रालय के आडिट रिपोर्ट के अनुसार यह पता चला था कि देश के 25 करोड़ मोबाइल धारकों में 20 प्रतिशत यानि पांच करोड़ मोबाइल सिम फर्जी पतों पर जारी कर दिए गए। ट्राई ने मोबाइल कम्पनियों को बकायदा यह निर्देश जारी कर रखा था कि ग्राहकों को तभी कनेक्शन उपलब्ध कराया जाय जब उनके नाम और पतों का सत्यापन हो जाय। उसने जांच में फर्जी पाए गए प्रति कनेक्शन पर एक हजार रुपए से लेकर 50 हजार रुपए तक के जुर्माने की व्यवस्था की थी। दूरसंचार मंत्रालय व ट्राई की लापरवाही की ही वजह से सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कम्पनियों ने पैसे कमाने की होड़ में देश की सुरक्षा को भी दांव पर लगा दिया।

डेली न्यूज़ में श्रीप्रकाश तिवारी की रिपोर्ट है कि लखनऊ निवासी एसपी मिश्र ने फर्जी सिमकार्डो का दुरुपयोग आतंकवादी गतिविधियों व अन्य कारणों से प्रयोग में लाने के मद्देनजर ही सूचना के कानून के तहत दूर संचार मंत्रालय से मोबाइल कम्पनियों पर की जाने वाली दंडात्मक कार्रवाई समेत अन्य विन्दुओं पर जानकारी मांगी थी। उन्होंने बताया कि देशभर में तकरीबन पांच करोड़ से अधिक फर्जी कनेक्शन दूर संचार मंत्रालय की आडिट रिपोर्ट में सामने आई थी। मगर दूर संचार मंत्रालय के अधिकारी बलविन्दर सिंह ने ऐसी किसी आडिट रिपोर्ट में फर्जी कनेक्शन से साफ इंकार किया है।

ग़रीबों की सही संख्या क्या? यह तो सरकार भी नहीं जानती: 1973 के मानदंडों पर ग़रीबी तय होती है!

भारत मे ग़रीबों की सही संख्या क्या है, और ग़रीबी तय करने के मापदंड क्या हैं, इन सवालों के जवाब अगर आप भारत सरकार से चाहते हैं तो उसका जवाब है कि देश मे फ़िलहाल कितने लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं इसका फ़िलहाल उसके पास कोई आंकड़ा मौजूद नही है। इतना ज़रूर बताया गया है कि वर्ष 2005 में 31 करोड़ 17 लाख लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते थे. जहां तक सवाल है यह तय करने का कि कौन ग़रीब है, ये एक पेचीदा और तकनीकी विषय है।

ये जवाब केंद्र सरकार के योजना राज्यमंत्री वी नारायणस्वामी ने प्रश्नकाल के दौरान ग़रीबी तय करने मापदंड पर हो रही बहस पर दिए थे। सरकार की तरफ से बताया गया कि ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की पहचान करने और उसके मानदंड तय करने के लिए रमेश तेंदुलकर समिति का गठन किया गया है। इस कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद ही केंद्र सरकार देश में ग़रीबों की नई संख्या तय कर पाएगी

हालांकि सरकार की तरफ से उन सवालों के कोई जवाब नही दिए गए जिनमे पूछा गया कि जब तक नए आंकड़े नही आ जाते, ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने की क्या व्यवस्था है। भारत में ग़रीबों की संख्या को लेकर भ्रम की स्थिति कोई नई नहीं है. पिछले दिनों सरकार की तरफ से नियुक्त अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने कहा था कि भारत में 70 प्रतिशत लोग 20 रुपए रोज़ से भी कम कमा पाते हैं।

ग़रीबी तय करने के मापदंड भी लगातार बदलते रहे हैं पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं को देखें तो वर्ष 1992 में आमदनी ग़रीबी मापने का तरीका था तो 1997 में ख़ुराक को इसका आधार बनाया गया। इसके बाद 10वीं योजना में 13 सवाल तय किए गए जिनके आधार पर घर-घर जाकर सर्वेक्षण कर ग़रीबों की संख्या तय करने का फ़ैसला किया गया।

सरकार की ग़रीबी तय करने के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि एक किसी ग़रीब की बेटी स्कूल पढ़ने जाती है, सिर्फ़ इस आधार पर कैसे तय किया जा सकता है कि वो परिवार ग़रीबी के दायरे से बाहर है।

सरकार ग़रीबी मिटाने के मामले मे कितनी गंभीर है इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि फ़िलहाल सरकार 1973 के मानदंडों पर ग़रीबी तय करती है

Sunday, March 21, 2010

चलती ट्रेन से टीटी ने एक दम्पति को बाहर फ़ेंक दिया

एक लोमहर्षक घटनाक्रम में पूर्व मध्य रेलवे के मुगलसराय रेलमंडल में सासाराम-सय्यद राजा स्टेशन के बीच चलती ट्रेन से टीटी ने एक दम्पति को बाहर फ़ेंक दिया जिससे पति की मौके पर ही मौत हो गयी। पुलिस सूत्रों के अनुसार उत्तरप्रदेश के चंदौली जिला के धीना थाना क्षेत्र के शिव शंकर और उसकी पत्नी संध्या देवी ने उत्तर प्रदेश के चंदौली जाने के लिए साधारण टिकट लेकर सासाराम रेलवे स्टेशन से हावड़ा-देहरादून एक्सप्रेस पकड़ा था। दोनों साधारण डिब्बे में की बजाय आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए।

जब टीटीई ने उन्हें पकड़ा तो आरक्षित टिकट बनाने के लिए अतिरिक्त रुपये की मांग की लेकिन दंपति ने और रुपये देने से इंकार कर दिया। इससे नाराज होकर टीटीई ने उन्हें लालपुर रेलवे गुमटी के पास चलती ट्रेन से बाहर फ़ेंक दियाश्री बारी की मौके पर ही मौत हो गयी जबकि उनकी पत्नी गंभीर रूप से घायल हो गयी

दिल्ली पाकिस्तान में! कोलकाता बंगाल की खाडी में!!

सरकारी कामकाज किस तरह होते हैं, एक नमूना देखिए। पूर्वी रेलवे ने 20 मार्च को कोलकाता तथा दिल्ली के बीच चलने वाली लग्जरी गाड़ी महाराजा एक्सप्रेस के उद्घाटन समारोह के बारे में प्रमुख समाचार पत्रों में एक विज्ञापन दिया। विज्ञापन में एक नक्शे के जरिए रेलगाडी का मार्ग समझाते हुए दिल्ली को पाकिस्तान में तथा कोलकाता को बंगाल की खाडी में बताया गया। गाडी कोलकाता से नई दिल्ली जाएगी तथा इसमें गया, वाराणसी, खजुराहो, ग्वालियर के राज्य ही बदल दिए गए हैं।

विज्ञापन एजेंसी को विज्ञापन देने वाली पूर्वी रेलवे ने हालांकि इस पूरे मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया है तथा दोष विज्ञापन तैयार करने वाली निजी एजेंसी के मत्थे मढ़ दिया है। पूर्वी रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी ने बताया कि जब यह विज्ञापन एजेंसी ने रेलवे को दिखाया था तो उसमें भारत का नक्शा ठीक था लेकिन बाद में कैसे उलट-पुलट गया। उन्हें समझ नहीं आ रहा है। उन्होंने कहा कि फिर भी उत्तर रेलवे इस गलती के लिए क्षमा प्रार्थी है। एडोनिक 76 विज्ञापन एजेंसी ने यह विज्ञापन बनाया था तथा भारत के नक्शे में शहरों के स्थान गलत दिखाना उनकी भारी गलती थी। इस विज्ञापन एजेंसी को काली सूची में डाल दिया गया है तथा उसे अब रेलवे का कोई काम नहीं सौंपा जाएगा।

गौरतलब है कि इस वर्ष जनवरी में महिला तथा बाल कल्याण मंत्रालय ने एक विज्ञापन छापा था जिसमें विभाग के विज्ञापन में पाकिस्तान के पूर्व वायुसेना प्रमुख तनवीर अहमद का चित्र भारत के विशिष्ट सपूतों वीरेन्द्र सहवाग, कपिल देव व अमजद अली के साथ दिखाए गए थे।

Saturday, March 20, 2010

मोबाईल के सहारे, सड़क या खेतों में बिना ड्राइवर के ट्रैक्टर चलेंगे

अब सड़क या खेतों में बिना ड्राइवर के ट्रैक्टर दौड़ता हुआ दिखाई दे तो चौंकियेगा नहीं, तकनीकी के इस दौर में यह संभव कर दिखाया है मोगा, पंजाब के लाला लाजपत राय पॉलीटेक्निक कॉलेज अजितवाल के दो छात्रों ने। उन्होंने एक ऐसा उपकरण तैयार किया है जो मोबाइल फोन के माध्यम से ट्रैक्टर को नियंत्रित करता है। मोबाइल फोन से ही ट्रैक्टर को स्टार्ट और बंद किया जा सकेगा और इसे सड़क या खेतों में दौड़ाया जा सकता है। 19 मार्च को कॉलेज परिसर में पवित्र सिंह और गुरदित्त सिंह ने तैयार किए गए उपकरण का प्रदर्शन कर सबको हैरान कर दिया।

दैनिक भास्कर में दीपक सिंगला की दिलचस्प रिपोर्ट में बताया गया है कि ट्रैक्टर को इन दोनों छात्रों ने मोबाइल की थ्री जी सेवा के साथ जोडा़ है। एक मोबाइल उपकरण ट्रैक्टर पर लगाया है जिसके कैमरे से ट्रैक्टर आगे की दिशा निर्धारित कर आगे बढ़ता है। ट्रैक्टर में भी गीयर और रेस, ब्रेक भी अपने आप ही लगते हैं।

मोबाइल फोन के माध्यम से ट्रैक्टर की पल-पल की स्थिति का भी पता लग सकेगा। दूसरे मोबाइल फोन से इस ट्रैक्टर को दुनिया के किसी भी स्थान पर बैठकर चलाया जा सकता है। इस प्रणाली को तैयार करने पर 95000 रुपये का खर्च आया है। दिलचस्प बात यह है कि अगर चलते हुए ट्रैक्टर के आगे कुछ दूरी तक कोई भी वस्तु आ जाती है तो वह वहीं रुक जाएगा। यह सेंसर के माध्यम से संभव हुआ है। सेंसर ट्रैक्टर के अगले हिस्से में फिट किए गए हैं।

इसे तैयार करने में तीन माह का समय लगा है। अभी 3 जी नेटर्वक सभी देश में सभी जगह उपलब्ध न होने के कारण कुछ मुश्किलें आ रही हैं लेकिन आने वाले समय में इसका लाभ कोई भी उठा सकेगा।

Tuesday, March 9, 2010

क्या इस युवती के लिए शाबासी और तालियाँ ही बहुत हैं?

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है? शायद यह पंक्तियां कल्पना सरोज जैसी महिला के लिए ही लिखी गई हैं, जो उस बीमार कंपनी को नया जीवन देने का प्रयास कर रही हैं जिसे हाथ लगाने से बड़े-बड़े उद्योगपति भी डर रहे थे।


महाराष्ट्र के अकोला जिले में एक दलित परिवार में जन्मी कल्पना सरोज के पिता पुलिस विभाग में हवलदार थे। पांच भाई-बहनों सहित सात सदस्यों के परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुट पाना भी मुश्किल था। शिक्षा बीच में ही छुड़वाकर परिवार की परंपराओं के मुताबिक 12 वर्ष की उम्र में ही विवाह हो गया। ससुराल मुंबई में थी। झोपड़पट्टी में छोटा सा घर और संयुक्त परिवार। गांव के खुले माहौल से आई बच्ची को यह रहन-सहन बिल्कुल रास नहीं आया और साल भर के अंदर ही विवाह टूट गया।

पिता के घर वापस जाने पर फिर से पढ़ाई शुरू हुई। साथ ही जीवनयापन की योजना के तहत सिलाई का काम भी सीखना शुरू कर दिया। लेकिन ससुराल छोड़कर आई किशोरी को कैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा होगा, इसका अनुमान उस त्रासद घटना से ही लगाया जा सकता है, जिसके तहत कल्पना ने एक दिन जहर की तीन शीशियां एक साथ गले के नीचे उतार ली। अस्पताल ले जाया गया। जान बच गई। लेकिन देखने आनेवाले हर शख्स की जुबान पर एक ही बात थी कि अगर मर जाती तो लोग यही कहते कि महादेव की बेटी ने कुछ गलत किया होगा, तभी जान दे दी।

दक्षिण मुंबई के बेलार्ड पियर्स स्थित कमानी चैंबर्स के अपने कार्यालय में बैठी कल्पना सरोज के कानों में लोगों के ये ताने आज भी गूंजते रहते हैं। वह कहती हैं कि किसी ने भी उस समय यह पूछने की कोशिश नहीं की कि किन तकलीफों से तंग आकर मैंने आत्महत्या की कोशिश कर डाली। कल्पना ने तभी तय कर लिया कि अब जीना है तो अपनी शर्तो पर, वह भी कुछ करके दिखाने के लिए।

लोगों से सुना था कि मुंबई में नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए पिता से मुंबई भेजने की जिद की। ससुराल तो छूट ही चुकी थी, इसलिए पिता ने मुंबई में रह रहे एक चाचा के पास रहने की व्यवस्था करवा दी। सिलाई सीख रखी थी, इसलिए दो रुपये रोज की मजदूरी पर एक होजरी के कारखाने में हेल्पर की नौकरी मिल गई । कुछ अच्छे लोगों की संगत में थोड़ी-बहुत पढ़ाई-लिखाई भी हुई, लेकिन दसवीं पास करने का मौका फिर भी नहीं मिला।

संयोग से दुबारा विवाह हुआ मुंबई के निकट कल्याण शहर में। पति स्टील की सस्ती अलमारियां एवं अन्य वस्तुएं बनाने का व्यवसाय करते थे। उनसे दो बच्चे हुए और पति के निधन से यह साथ भी छूट गया। कम पढ़ी लिखी बेसहारा औरत एवं दो छोटे बच्चे। रोजगार का कोई अनुभव नहीं। इसके बावजूद पति का व्यवसाय ही आगे बढ़ाकर जीविका चलाने की ठान ली। काम चल निकला। पति के समय से भी ज्यादा बचत भी होने लगी । कुछ पैसे जुटाकर एक ऐसी जमीन का टुकड़ा खरीद लिया, जिस पर तमाम अवैध कब्जे थे। किसी तरह कब्जे हटवाकर बैंक से ऋण लेकर एक रिहायशी इमारत बनाकर भवन निर्माण के व्यवसाय में कदम रख दिया। लाभ हुआ तो एक और इमारत बनाई । साथ ही क्षेत्र के बेरोजगार युवकों को विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाकर रोजगार शुरू करने में भी मदद की।

धीरे-धीरे छवि ऐसी बनती गई कि जब आजादी के दौर के एक प्रसिद्ध व्यावसायिक घराने की कंपनी कमानी टयूब्स लिमिटेड डूबने लगी और बीआईएफआर (बोर्ड फारइंडस्ट्रियल एवं फाइनेंशियल रिकंसट्रक्शन) ने इसे संभालने के लिए किसी को आगे आने का प्रस्ताव रखा तो कल्पना के पड़ोस में रहने वालेकंपनी के कुछ कर्मचारी उनके पास इस उम्मीद से जा पहुंचे कि वही इस कंपनी को संभाल सकती हैं।

बंद पड़ चुकी कमानी टयूब्स लिमिटेड। उस पर 116 करोड़ रुपयों का कर्ज120 से ज्यादा मुकदमे। 500 से ज्यादा कर्मचारियों के बकाया देय। और दो यूनियनें। इनमें से एक कर्मचारी संगठन एक बार बीआईएफआर से कंपनी की कमान संभालकर असफल भी हो चुका था। दूसरी ओर कल्पना को कंपनी चलाने का कोई अनुभव नहीं। इसके बावजूद हिम्मत बांध ली। क्योंकि सवाल खुद के लिए पैसा कमाने का नहीं, बल्कि कंपनी बंद होने से बदहाल हो रहे कर्मचारियों के भविष्य का था

10 लोगों का एक समूह बनाकर कंपनी चलाने की रूपरेखा तैयार की और बीआईएफआर के सामने हाजिर हो गई । बीआईएफआर ने वर्ष 2000 में उनके कंपनी चलाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उन्हें छह साल लगे कंपनी के वित्तीय पचड़ों को सुलझाने में। ऋणदाता बैंकों से कई दौर की बातचीत करके ऋण की राशि 116 करोड़ से घटाकर 40 करोड़ तक लाने में कामयाब रहीं। कंपनी छोड़कर जानेवाले 566 कर्मचारियों को कुल 8.5 करोड़ रुपयों की एकमुश्त अदायगी की।

21 मई, 2006 को कमानी टयूब्स लिमिटेड की चेयरपर्सन का दायित्व संभालनेवाली कल्पना सरोज अब बेलार्ड पियर्स स्थित अपने जिस कार्यालय में बैठती हैं, वह अनिल अंबानी के स्वामित्ववाले रिलायंस सेंटर से चंद कदमों की दूरी पर वाडिया हाउस के ठीक सामने स्थित है। इस मार्ग का नाम ही कमानी रोड है।

कल्पना के विश्वस्त सहयोगी एवं कंपनी के प्रबंध निदेशक एमके गोरे बताते हैं कि नए प्रबंधन में आने के बाद अपने पहले उत्पादन वर्ष में ही कंपनी ने 375 से 500 करोड़ रुपयों के बीच व्यवसाय का लक्ष्य निर्धारित किया है। यदि कल्पना सरोज की यह कल्पना सफल हो सकी तो यह न सिर्फ उनके जीवन की, बल्कि बीआईएफआर के अब तक के इतिहास की भी अजूबी घटना साबित होगी।

(मूलत: जागरण में प्रकाशित ओमप्रकाश तिवारी की एक रिपोर्ट के अंश, आभार सहित)

Friday, March 5, 2010

केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय का दफ़्तर एक ड्राईवर चला रहा!!

मैं तो इसे अनूठा मामला नहीं मानता। ऐसा देश के कई हिस्सों में हो रहा होगा। बात हो रही है केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय के अमृतसर स्थित कार्यालय की जिसे विभाग का एक ड्राइवर संभाल रहा है। यह ड्राइवर 'साहिब' गाड़ी ही नहीं दफ्तर भी चला रहे हैं। 1960 में आरंभ हुए कार्यालय में इस समय न स्टाफ है और न ही पर्याप्त सुविधाएं। एक मेज व चार कुर्सियों के सहारे ही मंत्रालय का कार्यालय चल रहा है। दो गाड़िया तो हैं, लेकिन दोनों बेकार। वर्षो से इमारत का रंग रोगन तक नहीं हुआ है।


दैनिक जागरण में रमेश शुक्ला सफर की एक दिलचस्प रिपोर्ट आई है कि इस कार्यालय का एडिशनल चार्ज गगनदीप कौर के पास है, लेकिन जालंधर के साथ कई और शहरों की जिम्मेवारी होने के चलते वह अमृतसर कार्यालय में कम ही मिलती हैं। कार्यालय का दायित्व केंद्र सरकार की रोजगार, ग्रामीण विकास, बच्चों, महिलाओं व बुजुर्गो के लिए नई योजनाओं को आम लोगों तक पहुंचाना है। लेकिन आजकल यह कार्यालय खुद परिचय का मोहताज हो गया है। आम लोगों को शायद ही पता हो कि रानी बाग के पास केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय का क्षेत्रीय कार्यालय भी है।

दैनिक जागरण के संवाददाता ने जब उक्त कार्यालय का दौरा किया तो देखा कि कार्यालय में बैठे ड्राइवर बलदेव शर्मा रजिस्टर में कुछ लिख पढ़ रहे थे। उनसे जब पूछा गया कि आफिस का स्टाफ क्या छुट्टी पर है तो वह कहने लगे, काहे का स्टाफ। यहा न तो क्लर्क हैं और न स्थायी अधिकारी। पानी पिलाने के लिए एक स्टाफ था वह भी रिटायर हो चुका है। मैं तो ड्राइवर हूं। सुबह नौ बजे कार्यालय खोलता हूं, शाम पाच बजे बंद करता हूं। हालाकि एफपीओ [फील्ड पब्लिसिटी अफसर] गगनदीप कौर हैं, लेकिन उनके पास इस कार्यालय का एडिशनल चार्ज है वह जालंधर कार्यालय भी देखती हैं। कार्यालय में लोगों के लिए पूछताछ के लिए एक फोन है, लेकिन कोई फोन आता ही नहीं।

इस बाबत गगनदीप कौर ने जागरण को बताया कि फिलहाल वह अमृतसर में ही होती हैं, जालंधर का भी चार्ज है ऐसे में एक-एक सप्ताह वह दोनों स्टेशनों को कवर करती हैं। चूंकि उनका अधिकाश काम ग्रामीण क्षेत्रों में होता है इसलिए आफिस में बैठने की फुर्सत नहीं मिलती!